वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

बुधवार, 16 सितंबर 2009

लघुकथा -पहली रात



लघुकथा वह जो सीधी दिल में उतर जाए !


पहली रात




बंसी बिहार का रहनेवाला गबरू जवान है !

गाँव के मुखिया का चौकीदार होते हुए

भी उसके लड़के से बंसी का याराना है !

पिछले हफ्ते ही तो बंसी की शादी रनिया

से हुई है ! सुना है मुंह दिखाई में मुखिया

की हवेली से उसे एक सोने का हार और

सितारों जड़ी सुन्दर सी साड़ी मिली !यह

भी कहा गया -पहली रात वह यही हार

और रेशमी साड़ी पहनेगी !अब इसे हुक्म

समझो या अपनापन !

विवाह के बाद रमिया पहली बार मायके

गई !बंसी मालिक की खिदमत में रहा !

रमिया की सहेलियों ने उसे घेर लिया

और चुहलबाजी करने लगीं --बतारी,

जीजा जी कैसे हैं ? वे तुझसे क्या बोले ? प्रश्नों की

झड़ी ने उसकी छिपी वेदना पर अंगारे

रख दिए !सिसकियों के बीच उसके

मुंह से निकल गया --'पहली रात मुखिया

के लड़के के साथ सोयी थी !'

* * *

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