वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

लघुकथा


दहेज़ / सुधा भार्गव









समीरा
  को बचपन से  ही शतरंज  खेलने  का  शौक  था | वह घंटों  अपने  दादाजी  के साथ बैठी  खेला  करतीI  उम्र  बढ़ने के साथ-साथ  शौक  भी  उफनती  नदी की  तरह  बढ़ता  गया I एक  दिन वह  इसकी  चैम्पियन  बन  गई I

उसके पड़ोस  में टेनिस  का खिलाड़ी  विक्रम भी  रहता था दोनों  ही एक  कालिज  में  पढ़ते  थे I पटती  भी  आपस  में  खूब  थी I बड़ी  होने पर दोनों  ने  शादी  करने  का  निश्चय  किया  I
                                                                      विक्रम  के पिता जी  ने स्पष्ट  शब्दों में समधी जी से कहा -हमें  दहेज़  नहीं  चाहिए ,केवल  बेटी  समीरा चाहिए
|
शादी  साधारण तरीके  से  हो  गई I

एक  संध्या विक्रम  ने  कुछ  दोस्तों  को  घर  पर  चाय  के  लिए  बुलाया I मित्रों  को  विश्वास  ही  नहीं  होता  था  कि बिना दहेज  के  शादी   भी  हो  सकती  है I
एक  का  स्वर  मुखर  हो  उठा  -
-यार  यह  तो  बता ,सौगातों  में  तुझे  ससुराल  से  क्या -क्या  मिला  है ?
-हमने  तो  बहुत    कहा --कुछ  नहीं  चाहिए - - - लेकिन  हाथी -घोड़े  तो  साथ  बांध  ही दिये  I
हाथी  -घोड़े !पूछने  वाला  सकपका  गया I 
हिम्मत  करके  पुन : पूछा --जरा  दिखाओ तो - - - I
-जरूर !जरूर !
-समीरा ,लेकर तो  आओ  और  मेरे दोस्त  की  तमन्ना  पूरी  करो |

खुशी -खुशी  वह  गयी  और  शीघ्रता  से हाथों  में एक  डिब्बा  लेकर  उपस्थित  हो  गयी I
बड़ी  आत्मीयता  से  उस  मित्र  से  बोली --क्या  आप को भी शतरंज  खेलने  का  शौक  है I मैं  अभी  उसे  मेज  पर  सजा  देती  हूं I  देखें- - -   किसके  हाथी -घोड़े  पिटते  हैं I

दोस्त  को  देखकर विक्रम  ने  हँसी का  एक  ठहाका  लगाया I वह  तो  बिना  खेले  ही शतरंजी  चाल  में  फँस चुका  था 

* * * * *
                                                                         

बुधवार, 28 जुलाई 2010

लघुकथा

असली  व्यापारी /सुधा  भार्गव  -
 
  






-
-भैया जी ,
इस  अंगूठी  पर  पालिश 
करा  दो और  चूड़ियाँ  भी  दिखा  दो I
--बहन  जी  ,आराम  से  बैठो ---देखो  और  बताओ  क्या  लोगे -चाय  या  ठंडा I
--बस  एक  कप   चाय I

--अरे  सोटू ,कारीगर  को  ये  दे  आ - - - -बहन  जी  की  अंगूठी
  है I इस  पर  पालिश  होनी  है  Iऔर  कहना - - हीरे  की  मजबूती भी  परख  ले I
बस  जी  दस  मिनट  में  आती  है   आप  तो  चूड़ियाँ  पसंद  कीजिए - - - ये  पंजाबी  तर्ज  की  हैं  ,यह  बंगाली  चूड़ा  है ,ये  नर्गिसी   कंगन  हैं I
 मशहूर  ज्वैलर अपने  ग्राहक  से  बोला I

--बस - - - बस  और  मत  निकालोI
--अरे  दिखाऊंगा नहीं  तो  आप 
पसंद  कैसे  करेंगी !
--ये  मीने  की  चूड़ियाँ  दे  दीजिये  I बात -बात  में  आधा घंटा  हो  गया  पर  अंगूठी  नहीं 
आई I
--बस  दस  मिनट  और  - - - इत
ने  मैं  आपका  बिल   बनाये  देता  हूं I

सोटू  अंगूठी  लेकर  आया  I
हीरे  की  अंगूठी  सच  में  चमचम  कर  रही  थी Iबहन  जी  ने  एक  हाथ  में  मीने  की  चूड़ियाँ  पहनी  और  दूसरे  में  अंगूठी  I इठलाती -बाल खातीं  कार  में  जा  बैठीं I
--एक  हफ्ते  ही  में  हीरा  धूमिल  लगने  लगा  I दुर्भाग्य  से दूसरे  हफ्ते  छिटक  कर  वह  जमीन  पर  जा  पड़ा  I पास  ही  की  दुकान  पर  अंगूठी  ले  जाने  से  पता  लगा  हीरा  तो  नकली  है I

--बहन  जी  का  तो  दिमाग  घूम  गया  I इसलिए  नहीं  कि करोड़   की लागत का  हीरा कुछ  हजार  का  निकला  बल्कि  इसलिए कि  पिछले  २५ वर्षों से  वह  परिवार  का ज्वैलर  रहा  ,जिस  पर  अटूट  विश्वास ,उसने  तो  न  जाने  कहाँ -कहाँ  सेंध  लगाई होगी I
बहन  जी यह  चोट  सहन  न  कर  पाईं  I अगले  दिन  ज्वैलर  की  दुकान  में  दनदनाती  घुसीं और ग्राहकों  के  बीच  ज्वालामुखी  सी  फूट  पड़ीं I

--हमारे  साथ  इतना  बड़ा  धोखा - - - असली  की  जगह नकली  हीरा !जबकि  वह  तुम्हारी  ही  दुकान  का  था I Iपचास  हजार  का  लिया  था I अब  तो  उसका  दाम  करोड़  होगा  I तुम्हें  ऐसा  नहीं  करना  चाहिए  था I

--शांत  होइये  बहन जी --- !क्या  करना  चाहिए  क्या  नहीं  - - -मुझे  इतनी  समझ  है I आपने   ठीक  फरमाया  मेरी दुकान  से ही यह  पचास  हजार में  खरीदा  गया  था I आज  इसकी  कीमत  बदल  गयी  है I  इसीकारण  तो  मैंने  उसे  बदल  दिया  और  पचास  हजार  का  दूसरा  लगा  दिया I
--तुमने  ऐसा  क्यों  किया  ?
--क्योंकि  मैं  एक  व्यापारी  हूं I  व्यापार  में  घाटा नहीं  सह  सकता I मेरा  तो  काम  ही  चार  से  चालीस  बनाना  है वरना   व्यापारी  किस  बात  का I  एक  करोड़  का  हीरा  कैसे  गँवा  सकता  था  लक्ष्मी जी  तो  मेरे  पास  चल  कर  आई  थीं I
व्यापारिक छैनी से ज्वैलर  ने विश्वास  के  पर  काट  दिये  थे   और  वह  खून  से  लथपथ औंधे  मुँह   जमीन  पर  पड़ा  सिसक  रहा  था I

(छवियाँ -गूगल  से  साभार)

बुधवार, 14 जुलाई 2010

लघुकथा-सार्थकता

सार्थकता  / सुधा  भार्गव






साहित्यिक  विधा ' लघुकथा ' पर  सेमिनार  हुई I दूर -दूर से  बुद्धिजीवी  पधारे I वक्तव्य  देने  के  लिए  भी और सुनने  के  लिए  भी I भाषणों  का  सिलसिला  शुरू  हुआ जो  रुकने  का  नाम  ही   न  लेता  था  | शब्दों  को  तोड़मरोड़ कर एक  ही  बात  कई बार  दोहराई  गयी |
                                                                                                   सुनने  वाले  जम्हाइयां  लेने   लगे  Iअध्यक्ष  महोदय  अपना  सिर  खुजलाने  लगे I   सब्र  का बाँध  टूटा  तो  उठ  खड़े  हुए  i बोले --
सत्य  ही ,लघुकथा कम  शब्दों  में  गंभीरता  से  चोट  करते  हुए  यथार्थ  को  मुखरित  करती  है I
उन्होंने  दूसरों  की  कही   बात  एक  बार  और  दोहरा दी  I

एक  श्रोता  खीजकर  बोला --
''काश  वक्तव्य  का  कलेवर  भी  लघु  होता  और  कलेजे  में  होता गहन -गंभीर  स्पंदन  - - - तभी  सेमिनार  सार्थक  होती  I  
  

लघुकथा

व्यथा पुंज /सुधा भार्गव











-रोनी सी सूरत क्यों बना रखी है !

-बच्चा समान वह नाजुक सा नई-नई कोंपलों वाला पौधा कल तक तो यहीं था आज गायब है| मेरे बुजुर्गों में से तो चाहे जब कोई गायब हो जाता है | अपनों का बिछोह अब सहन नहीं |

-तुम्हारे हरे -भरे संसार की सुरक्षा की तो पूरी व्यवस्था लगती है |

-जिनके ह्रदय में कंटीली झाड़ियाँ उग आई हैं उनके लए सब कुछ संभव है | अफसर बाहर छुट्टी पर गया है | लौटेगा तो पता लगाएगा किसने किया - - - |
तब तक तो मैं भी रहूँ या न रहूँ - - - - हिचकियाँ बंध गईं उस व्यथा पुंज की |

दिन के उजाले में भी मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया |ठंडी हवा शरीर को जलाने लगी |शायद उसके दुःख की आंधी का असर था कि मैं डगमगाया - -,सुदर्शन सा वृक्ष डगमगाया - - - फिर हर कोई |
लेकिन तनकर कोई सामने नहीं आया जिससे काटने वाले की कुल्हाड़ी पर कुल्हाड़ा चल सके |

सोमवार, 28 जून 2010

लघुकथा


मूर्छाचक्र







-


-तुम डायबिटीज के रोगी - - - !पर मिठाई से इतना मोह !बहुत खतरा है | डाक्टर ने समझाने की कोशिश की |

-किसे ?

-जिन्दगी को |

-कहाँ खतरा नहीं है !रेल में तो
,हवाई जहाज में तो - - -पैदल तो - - - कार में तो - - - | फिर डरना क्या ! मुझे मिठाई बहुत अच्छीलगती है |क्यों छोडूँ ! मरूँ तो परवाह नहीं |

-हो सकता है पॉँच वर्ष अधिक जी लो |

-क्या फर्क पड़ता है पॉँच वर्ष कम या ज्यादा |एक दिन मौत तो आयेगी ही |

-हाँ , मौत तो आयेगी ही |मगर तुम किस प्रकार मरना पसंद करोगे ?एक तो वह आये ,तुम हँसते -हँसते उसका स्वागत करो औरशांत हो जाओ | दूसरे , वह आये अपने साथ काँटे लाये ,उनकी चुभन से तुम तड़पते -कराहते जाओ |

सुनने वाले का मूर्छा चक्र टूटने लगा |
वह चिल्लाया -समझ गया - - -समझ गया |

-क्या समझे !

-यही कि
शान से जीते हो तो मरना भी शान से है |


* * * * * * * * *

रविवार, 30 मई 2010

लघुकथा -जीवन- - -


//जीवन
दर्शन \\_ सुधा भार्गव












लम्बी
बीमारी के बाद मेरे बाबा का स्वर्गवास हो गया | मैं उनको कन्धा देते -देते शमशान घाट पहुँचा | अहाते से ही एक महिला दिखाई दी | मैं अचकचा गया -औरत ,शमशान घाट पर ! फिर मैंने अपने ही को तसल्ली दी -बेचारी का कोई होगा नहीं इसीकारण उसे मरने वाले के साथ यहाँ आना पड़ा | उसकेलिए ढेर सा लावा फूट पड़ा |

कुछ ही देर में वहाँ दो शव और आ गये |उनके रिश्ते दारों में खलबली मच गई| वहाँ कोई कब्र खुदी हुई नहीं थी | इतने में वही महिला जिसे मैंने सबसे पहले देखा था हाथ में कुदाली लिए आई और बोली --

-बाबू घबराते क्यों हो ! माथे पर आये पसीने पौंछ लो | एक घंटा सब्र करो ,अभी कब्रें तैयार हो जाती हैं |

मैं सन्नाटे में आ गया -औरत होकर ऐसी बातें !

मुखाग्नि के बाद मैं बाबा की यादों में ड़ूब गया |थोड़ी दूर उस औरत को मिट्टी खोदने में व्यस्त देखा | उसकी ओर खिंचा चला गया |
वह करीब पचास वर्ष की अधेड़ औरत ,२ फीट गहरी कब्र खोद चुकी थी| मिट्टी में पैर जमाये कुशलता से चारों तरफ की मिट्टी खोद- खोदकर फाबड़े से बाहर फ़ेंक रही थी | दूसरी
ब्र एक आदमी खोद रहा था | वह उसका पति था |

--तुमने तो बहुत जल्दी कब्र खोद दी |


--अरे बाबू ,अभी तो ५ फीट और खोदनी है |

--यह तो बड़ी मेहनत का काम है |तुम्हारा मर्द तो काम करता ही है फिर तुम क्यों करती हो |

--आदमी कर सकता है ,मैं क्यों नहीं कर सकती | बाबू ,हम कोई कागज की पुतली नहीं कि फूँक मारो उड़
जायें |

--
डर भी नहीं लगता !

-डर - - - भूत -प्रेत का !आप तो अच्छा -खासा मजाक करे हो |यहाँ कोई भुतवा नहीं |हमें तो यहाँ रोजीरोटी मिले है |

इतने में उसका पति भी हमारे पास आकर खड़ा हो गया |
मैंने उस पर भी बंदूक तान दी -तुम यह काम अपनी पत्नी से क्यों करवाते हो |

--हुजूर मैं चाहता हूं मेरी पत्नी हमेशा स्वाभिमान के साथ | अपना पेट भरने का उसमें दम हो |अब मुझे जो काम आता था वह मैंनेसिखा दिया |


--
इससे क्या तुम्हारे पूरे पड़ जाते हैं |

-
-
साहब जिन्दा रहने को क्या चाहिए !बस दो वक्त की रोटी और तन ढकने को कपड़ा |बाक़ी तो सब यहीं छूट जायेगा |

उसका जीवन दर्शन मुझे मुँह चिढ़ाने लगा | आज भी उसके शब्दों का छिपा कटु सत्य मेरे कानों से टकराता है और मैं , 'एकत्रीकरणका पक्षधर ' अपने सीने को मलता ही रह जाता हूं |

* * * * * *

रविवार, 2 मई 2010

लघुकथा -गुलाब


लघुकथाएँ हमारे इर्द -गिर्द बिखरी पड़ी हैं !
||गुलाब की महक||


एक माली था !वह रोज सुबह गुलाब अपनी टोकरी में चुन लेता !एक दिन झाडी के पीछे से आवाज आई _
'-माली भाई-- -तुम मेरे फूल ही क्यों चुनते हो !उनके साथ कांटे भी तो हैं !'
'मैंने जिसके लिए इन्हें तोड़ा है ,उसे फूल ही पसंद हैं !'
'दूसरों के तो वह कांटें चुभोता रहता है ! इस बार फूलों के साथ कांटे भी ले जाओ ! काम आयेंगे !'
माली ने गुलाबराज की बात मान ली और बनिए को फूलों की पुड़िया दे आया !पूजा करते समय उसने उसे खोला और भगवान् के चरणों में सुगन्धित पुष्प चढाये !
ऐसा करते वक्त उसकी अँगुलियों को काँटों ने छेद दिया !पीडा से वह तिलमिला उठा !
दूसरे दिन माली के आने पर बनिया बोला -तुम्हे कल के फूलों के पैसे नहीं मिलेंगे !पुडिया में कांटे भी थे !'

'कांटे आपके
लिए नहीं ,दूसरों के लिए लाया था !'

'दूसरों के लिये ! क्यों ?'

'कभी -कभी आप दूसरों के कांटे चुभोते हो !इसलिए ले आया ,न जाने कब इनकी जरुरत आन पड़े !'

'तेरा दिमाग घास चरने चला गया है क्या !मैंने कब किस के कांटा चुभोया है !'

-'कांटें चुभोने के लिए जरूरी नहीं कि इसी तरह के कांटें हों दूसरों से कटु बोलना ,धोखा देना ,सफलता के मार्ग में रोड़े अटकाना भी तो शूल सी चुभन देता है आपने जाने अनजाने --कितने ही लोगों को लाइलाज घाव दिये हैं अब वे आपको नुकसान पहुँचाने की टोह में रहते हैं I

 ऐसे में केवल घर के गुलाबों से क्या होगा !
दिल में प्यार की इमारत खड़ी करनी पड़ेगी जिससे बाहर भी फूलों की सी महक मिल सके !

* * * * * * * *

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

लघुकथा -महाभारत

लघुकथा
















महाभारत
/
सुधा भार्गव


-जल्दी नहा ----देर हो रही है ---I
-अरे मेरा तौलिया कहाँ है ?
-ले तौलिया ,मगर जल्दी छोड़ बाथरूम I
-चुटकी !----ये तौलिया बांधे कहाँ चली - - - - !पापा बोले I
-बालकनी में - - - - मेरी चप्पल नहीं मिल रही I नंगे पैर नहाया नहीं जाता I
-माँ - - - - माँ मेरी ड्रेस पर तो प्रेस भी नहीं है I बड़की झल्लाई I
-अभी करती हूं - - - जल्दी दूध पीओ I
-टिफिन कहाँ है - - - - - ?
-भागो नीचे - - - बस आ गई I
-स्वटर भूल गई बच्ची !ठंडी हवा चल रही है I
अरे किसनी ,(महरी की छोटी लड़की )जल्दी दौड़ - - - -I चुटकी को स्वटर देकर आ और यह चार्ट ले जा ,उससे कहना --कपूर मैडम को दे दे I माँ का स्वर गूँजा I
टन-टन - - - कर्र- - कर्र - - - -टेलीफोन की घंटी I
किसनी के हाथ में रिसीवर ,नीचे से बोली - - -अम्मा - - - बड़की को जल्दी भेजो ,बस जाता है |

आधे घंटे की यह महाभारत सुनंदा फूफी रोज ही देखती है I एक दिन पानी सर से उतर गया तो बोली -
-कौशल बेटा ,यदि रात में ही बच्चों की ड्रेस हैंगर पर लटका दो तो सवेरे की भयानक चिल्ल -पों से बचा जा सकता है I कम से कम पाँच मिनट बचेंगे I उस समय बच्चे दूध -दवा ले पायेंगे I

-फूफी ,ये बच्चे हैं क्या !कक्षा ६-७ में पढ़ने वाले I आज आने दो ,इनको सिखाऊंगा -कपड़े कैसे रखे जाते हैं I
-बच्चे छोटे हैं I डांटने -ठोंकने से कुछ नहीं होगा I कुम्हला जरूर जायेंगे I अपने सुख -आराम के लिए बच्चों का इतनी जल्दी बचपन छीन लेना ठीक नहीं I आज से मैं इनके कपड़ों का प्रबंध करूँगी i
-आप इनकी आदत बिगाड़ देंगी I
-बच्चों को हुकुम देने ,उपदेश देने से बात नहीं बनती I कुछ दिन वे मुझे करता देखेंगे ,बाद में स्वयं वैसा ही करने लगेंगे I
-ये बच्चे कुछ नहीं सीखेंगे I
-क्यों नहीं सीखेंगे ?तुम्हें मालूम है बच्चे कैसे होते हैं ?
-कैसे होते हैं !
-नकलची बन्दर ! सैंकड़ों वर्ष पूर्व हुए महाभारत में उपद्रव करने वाले और अमन -चैन फैलाने वाले आखिर थे तो किसी के बच्चे ही I बचपन में सीखे हुए को ही उन्होंने मूर्त रूप दिया I

चित्रांकन
सुधा
* * * * * * *

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

लघुकथा /सुधा भार्गव

नकलची बन्दर
-जल्दी नहा -----देर हो रही है ---1

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

लघुकथा घिराव

लघुकथा

घिराव /सुधा भार्गव



जावित्री की साध थी कि डाक्टर बेटे के लिए बहू भी डाक्टर हो | बधाई देने वालों का ताँता लग गया |
विवाह के अवसर पर सावित्री बोली --जावित्री तेरी तो मन की मुराद पूरी हो गयी |
-हाँ दीदी !कल तो गीत संध्या है | बहू का नाच होगा |बहू नाचना जानती है | डाक्टर होते हुए यह हुनर भी है |
खाना जरा  कम   बनाना  आता  है  सो  वह  मैं  सिखा  दूँगी |
|मैं तो अपनी बहू को सर्वगुण संपन्न देखना  चाहती  हूं |

विवाह  की  भीड़  छंट जाने  पर बहू  रुनझुन  ने चैन  की  साँस  ली I डाक्टर  होने  के  नाते  दूसरों  की  साँस  बनाये  रखती  थी  पर  खुद  का  नये  वातावरण  में  दम  घुट  रहा   था I                                                                      बचपन  में  कभी  कत्थक  सीखा   था I शौक  -शौक  में  स्कूल  के डांस  कार्यक्रमों   में  भाग लेती   थी  परन्तु  जीवन  के  रंगमंच पर  उसको  इसकदर     नाचना पड़ेगा ,उसने  सोचा 
भी  न  था I डर  था दूसरों  के  इशारे  पर नाचना  उसकी  नियति  न बन  जाए I
जात -बिरादरी  में  जब  भी  शादी  ब्याह  होते  ,रुनझुन  की  सास  एक  सप्ताह  पहले  ही उसे  सतर्क  कार  देती  -बहू,नाच  तैयार  कर लेना  I
 
एक  माह  बीता  ही  था  कि रुनझुन  को  सपने  आने  लगे  -डाक्टर मुझे  बचाओ ,मेरे  बच्चे  को  दवा   दे दो I
शीघ्र  ही  अपने  कर्तव्य  की  पुकार  सुन  किसी  अस्पताल  में  काम  करने  का  निश्चय  कर   लिया I  धर्मार्थ  अस्पताल  में  तो वह  एक  हफ्ते  बाद  ही  जाने  लगी और  एक  प्रसिद्ध  चिकित्सालय  के  लिए  उसने  अर्जी  दे  दी I

जिस  दिन  उसे  इंटरव्यू  देने  जाना  था  उसी  दिन  उसके  डाक्टर पति   का  जन्मदिन  था I पिछले  वर्ष  से  कुछ  ज्यादा  ही लोगों  को  निमंत्रित  किया  गया  था , जिसका  उद्देश्य  जन्मदिवस   मनाना  नहीं अपितु  यह  दिखाना  था कि  हमारे  घर  की  बहू  डाक्टर  होने  के  साथ -साथ घर  के  कार्यों  में  और  आतिथ्य  सत्कार  में कितनी  प्रवीण  है I

बेटे  ने  दबे  स्वर  में  कहा --मम्मी ,जन्मदिन एक दिन   बाद  मनाया  जा  सकता  है I   कल  तो रुनझुन  का  इंटरव्यू  है I
-अरे  इंटरव्यू  है  तो  क्या  हुआ i एक  नहीं  तो  दूसरा i मेरी  बहू  के  लिए  तो  हजार  इंटरव्यू  इन्तजार  करेंगे I जन्मदिन  तो  वर्ष  का  एक दिन  ही  होता  है  उसे  कैसे  टला  जा  सकता  है I
-घर  में  इतने  नौकर -चाकर  हैं काम  में  कोई  फर्क  नहीं पड़ेगा,परन्तु रुनझुन
इंटरव्यू देने  नहीं  गई  तो  उसे  बहुत फर्क पड़ेगा  I बेटे  ने  समझाने  का  प्रयत्न  किया I
-न  बाबा ना---- I बहू  के  बिना  एक  मिनट  नहीं  चलेगा I बहुत  कर  लिया  मैंने  काम I अब  नहीं  संभलता मुझसे घर I ले  बहू ,घर  की  चाबियाँ और  संभाल  इस  घर को I

रुनझुन  से कुछ  कहते न बना I एक  तरफ  उसकी  सास  उसके  गुण  गाते  नहीं  अघाती  थीं दूसरी  ओर उसे  अपनी  बीन पर नचाना चाहती थीं I क्या वह नाच पायेगी I संदेहों ,सवालों  के  बीच  वह  घिरी हुई  थी I

चित्रांकन /सुधा
 

बुधवार, 24 मार्च 2010

रद्द करें

लघुकथा

घिराव /सुधा भार्गव



जावित्री की साध थी कि डाक्टर बेटे के लिए बहू भी डाक्टर हो | बधाई देने वालों का ताँता लग गया |
विवाह के अवसर पर सावित्री बोली --जावित्री तेरी तो मन की मुराद पूरी हो गयी |
-हाँ दीदी !कल तो गीत संध्या है | बहू का नाच होगा |बहू नाचना जानती है | डाक्टर होते हुए यह हुनर भी है |
खाना
चाहती हूँरा कम आता विवाह की भेद विवाह की ज्ज्ज्जज |मैं तो अपनी बहू को सर्वगुण संपन्न देखना











सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

हिन्दी साहित्य एक विशाल समुद्र है जिसकी हर लहर एक शुभ्र विधा है | जब यह लहर सहज सार्थकता के सांचे में ढली हृदय के कोने सौन्दर्य देखते ही बनता है
| इसी को ध्यान में रखते हुए इस ब्लॉग का आरम्भ किया है | इसका सदैव प्रयास रहेगा स्वस्थ , अर्थयुक्त और उद्देश्य पूर्ण सृजन |

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

लघुकथा

गुमसुम -- सुधा भार्गव










चार वर्ष का नन्हा टोडी- ''माँ का दुलारा ,बाबा का प्यारा ,बहन का निराला राजा भैया I''
पॉँच वर्ष का होते ही वह स्कूल जाने लगा i तब से ये सारे विशेषण छू-मंतर हो गये i स्कूल जाते समय माँ हिदायत देती -कायदे से रहना i नन्हा समझ न पाया -कायदा किसे कहते हैं i
बाबा बोले ,''ज्यादा बातें न करना I '' नन्हा अचकचा गया ,बाबा को क्या हो गया है i
मेरी बातें सुनकर हँसते थे ,गले लगाते थे ;वे ही कह रहे हैं --चुप रहना I

स्कूल का प्रथम दिन था बच्चे धीरे -धीरे स्कूल के प्रांगण में कदम रख रहे थे I कक्षा में वे कुछ देर खामोश रहे नजरें ऊपर उठीं I एक दूसरे से टकराईं I चेहरों पर धूप सी फैल गयी I कक्षा में मैडम के घुसते ही बच्चे अपनी जगह खड़े हो गये I चहलकदमी ,चहचाहट से मैडम के माथे पर बल पड़ गये I नन्हा टोडी मन ही मन दोहराने लगा --बातें नहीं करना है , कायदे से रहना है I
दो बच्चों ने एक दूसरे को देखा साथ -साथ मुस्काने लगे मैडम को उनकी भोली मुस्कान काँटे सी चुभ गयी मैडम ने उनमें से एक का कान उमेठ दिया ,दूसरे को मुर्गा बना दिया --''अब भूल जाओगे सारी शैतानी i ''

नन्हें टोडी के दिमाग ने फिर ढूँढना शुरू कर दिया --यह शैतानी क्या होती है ?क्या हँसने को- - - - शैतानी कहते हैं ?वह गुमसुम हो गया I
वह घर पहुंचा तो शरीर कम मन ज्यादा थक चुका था I घर आकर उसने राहत की साँस ली I ''बेटा ,थक गए होगे खाना खाकर सो जाओ ''माँ ने कहा I
''माँ आज मैं नहीं सोऊंगा ,आप सो जाओ ''कहकर वह अपने खिलौनों में उलझकर मन की थकान मिटाने लगा I''
''उफ !क्या खटपट कर रहा है ?मुझे सोने दे और तू भी सो जा ;वर्ना तेरी मैडम से कह दूंगी I''
'' यह मैडम ,माँ और मेरे बीच कहाँ से आ टपकी !''नन्हे को दिखाई देने लगा वह लड़का जिसका मैडम ने कान मरोड़ा था I वह डर गया I

नन्हा टोडी स्कूल जाता रहा ,पर सहमा -सहमा I अब कक्षा में एकदम चुप रहने लगा I मैडम ने पूछा-''पांच फलों के नाम बताओ ?''और उसकी तरफ इशारा किया ,''तुम हमेशा चुप बैठे रहते हो खड़े होकर बताओ I''
नन्हा टोडी जनता था ;मगर मैडम की घुड़की से हकलाने लगा I
मैडम ने उसकी डायरी उठाई और उसमें लिखा ,''आपका बच्चा बहुत सुस्त है ,बहुत गुमसुम रहता है I हकलाता भी है I तुरंत किसी अच्छे डाक्टर को दिखाइये I


चित्रांकन -सुधा भार्गव