वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

रविवार, 30 मई 2010

लघुकथा -जीवन- - -


//जीवन
दर्शन \\_ सुधा भार्गव












लम्बी
बीमारी के बाद मेरे बाबा का स्वर्गवास हो गया | मैं उनको कन्धा देते -देते शमशान घाट पहुँचा | अहाते से ही एक महिला दिखाई दी | मैं अचकचा गया -औरत ,शमशान घाट पर ! फिर मैंने अपने ही को तसल्ली दी -बेचारी का कोई होगा नहीं इसीकारण उसे मरने वाले के साथ यहाँ आना पड़ा | उसकेलिए ढेर सा लावा फूट पड़ा |

कुछ ही देर में वहाँ दो शव और आ गये |उनके रिश्ते दारों में खलबली मच गई| वहाँ कोई कब्र खुदी हुई नहीं थी | इतने में वही महिला जिसे मैंने सबसे पहले देखा था हाथ में कुदाली लिए आई और बोली --

-बाबू घबराते क्यों हो ! माथे पर आये पसीने पौंछ लो | एक घंटा सब्र करो ,अभी कब्रें तैयार हो जाती हैं |

मैं सन्नाटे में आ गया -औरत होकर ऐसी बातें !

मुखाग्नि के बाद मैं बाबा की यादों में ड़ूब गया |थोड़ी दूर उस औरत को मिट्टी खोदने में व्यस्त देखा | उसकी ओर खिंचा चला गया |
वह करीब पचास वर्ष की अधेड़ औरत ,२ फीट गहरी कब्र खोद चुकी थी| मिट्टी में पैर जमाये कुशलता से चारों तरफ की मिट्टी खोद- खोदकर फाबड़े से बाहर फ़ेंक रही थी | दूसरी
ब्र एक आदमी खोद रहा था | वह उसका पति था |

--तुमने तो बहुत जल्दी कब्र खोद दी |


--अरे बाबू ,अभी तो ५ फीट और खोदनी है |

--यह तो बड़ी मेहनत का काम है |तुम्हारा मर्द तो काम करता ही है फिर तुम क्यों करती हो |

--आदमी कर सकता है ,मैं क्यों नहीं कर सकती | बाबू ,हम कोई कागज की पुतली नहीं कि फूँक मारो उड़
जायें |

--
डर भी नहीं लगता !

-डर - - - भूत -प्रेत का !आप तो अच्छा -खासा मजाक करे हो |यहाँ कोई भुतवा नहीं |हमें तो यहाँ रोजीरोटी मिले है |

इतने में उसका पति भी हमारे पास आकर खड़ा हो गया |
मैंने उस पर भी बंदूक तान दी -तुम यह काम अपनी पत्नी से क्यों करवाते हो |

--हुजूर मैं चाहता हूं मेरी पत्नी हमेशा स्वाभिमान के साथ | अपना पेट भरने का उसमें दम हो |अब मुझे जो काम आता था वह मैंनेसिखा दिया |


--
इससे क्या तुम्हारे पूरे पड़ जाते हैं |

-
-
साहब जिन्दा रहने को क्या चाहिए !बस दो वक्त की रोटी और तन ढकने को कपड़ा |बाक़ी तो सब यहीं छूट जायेगा |

उसका जीवन दर्शन मुझे मुँह चिढ़ाने लगा | आज भी उसके शब्दों का छिपा कटु सत्य मेरे कानों से टकराता है और मैं , 'एकत्रीकरणका पक्षधर ' अपने सीने को मलता ही रह जाता हूं |

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रविवार, 2 मई 2010

लघुकथा -गुलाब


लघुकथाएँ हमारे इर्द -गिर्द बिखरी पड़ी हैं !
||गुलाब की महक||


एक माली था !वह रोज सुबह गुलाब अपनी टोकरी में चुन लेता !एक दिन झाडी के पीछे से आवाज आई _
'-माली भाई-- -तुम मेरे फूल ही क्यों चुनते हो !उनके साथ कांटे भी तो हैं !'
'मैंने जिसके लिए इन्हें तोड़ा है ,उसे फूल ही पसंद हैं !'
'दूसरों के तो वह कांटें चुभोता रहता है ! इस बार फूलों के साथ कांटे भी ले जाओ ! काम आयेंगे !'
माली ने गुलाबराज की बात मान ली और बनिए को फूलों की पुड़िया दे आया !पूजा करते समय उसने उसे खोला और भगवान् के चरणों में सुगन्धित पुष्प चढाये !
ऐसा करते वक्त उसकी अँगुलियों को काँटों ने छेद दिया !पीडा से वह तिलमिला उठा !
दूसरे दिन माली के आने पर बनिया बोला -तुम्हे कल के फूलों के पैसे नहीं मिलेंगे !पुडिया में कांटे भी थे !'

'कांटे आपके
लिए नहीं ,दूसरों के लिए लाया था !'

'दूसरों के लिये ! क्यों ?'

'कभी -कभी आप दूसरों के कांटे चुभोते हो !इसलिए ले आया ,न जाने कब इनकी जरुरत आन पड़े !'

'तेरा दिमाग घास चरने चला गया है क्या !मैंने कब किस के कांटा चुभोया है !'

-'कांटें चुभोने के लिए जरूरी नहीं कि इसी तरह के कांटें हों दूसरों से कटु बोलना ,धोखा देना ,सफलता के मार्ग में रोड़े अटकाना भी तो शूल सी चुभन देता है आपने जाने अनजाने --कितने ही लोगों को लाइलाज घाव दिये हैं अब वे आपको नुकसान पहुँचाने की टोह में रहते हैं I

 ऐसे में केवल घर के गुलाबों से क्या होगा !
दिल में प्यार की इमारत खड़ी करनी पड़ेगी जिससे बाहर भी फूलों की सी महक मिल सके !

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