वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

रविवार, 2 मई 2010

लघुकथा -गुलाब


लघुकथाएँ हमारे इर्द -गिर्द बिखरी पड़ी हैं !
||गुलाब की महक||


एक माली था !वह रोज सुबह गुलाब अपनी टोकरी में चुन लेता !एक दिन झाडी के पीछे से आवाज आई _
'-माली भाई-- -तुम मेरे फूल ही क्यों चुनते हो !उनके साथ कांटे भी तो हैं !'
'मैंने जिसके लिए इन्हें तोड़ा है ,उसे फूल ही पसंद हैं !'
'दूसरों के तो वह कांटें चुभोता रहता है ! इस बार फूलों के साथ कांटे भी ले जाओ ! काम आयेंगे !'
माली ने गुलाबराज की बात मान ली और बनिए को फूलों की पुड़िया दे आया !पूजा करते समय उसने उसे खोला और भगवान् के चरणों में सुगन्धित पुष्प चढाये !
ऐसा करते वक्त उसकी अँगुलियों को काँटों ने छेद दिया !पीडा से वह तिलमिला उठा !
दूसरे दिन माली के आने पर बनिया बोला -तुम्हे कल के फूलों के पैसे नहीं मिलेंगे !पुडिया में कांटे भी थे !'

'कांटे आपके
लिए नहीं ,दूसरों के लिए लाया था !'

'दूसरों के लिये ! क्यों ?'

'कभी -कभी आप दूसरों के कांटे चुभोते हो !इसलिए ले आया ,न जाने कब इनकी जरुरत आन पड़े !'

'तेरा दिमाग घास चरने चला गया है क्या !मैंने कब किस के कांटा चुभोया है !'

-'कांटें चुभोने के लिए जरूरी नहीं कि इसी तरह के कांटें हों दूसरों से कटु बोलना ,धोखा देना ,सफलता के मार्ग में रोड़े अटकाना भी तो शूल सी चुभन देता है आपने जाने अनजाने --कितने ही लोगों को लाइलाज घाव दिये हैं अब वे आपको नुकसान पहुँचाने की टोह में रहते हैं I

 ऐसे में केवल घर के गुलाबों से क्या होगा !
दिल में प्यार की इमारत खड़ी करनी पड़ेगी जिससे बाहर भी फूलों की सी महक मिल सके !

* * * * * * * *

2 टिप्‍पणियां:

  1. सुधा जी भाव बहुत ही गहरे हैं..... पता नहीं कितने लोग समझ पायें....
    सुन्दर लघुकथा....
    जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

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  2. आपकी अब तक पढ़ी लघुकथाओं के दो रूप मैंने पाए हैं। पहला, जो शायद बहुतायत में है,भाववादी एवं बोधपरक लघुकथा का है तथा दूसरा, समकालीन स्तर की मनोवैज्ञानिक लघुकथा का। प्रस्तुत लघुकथा पहले प्रकार के अन्तर्गत आती है।

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