वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

बुधवार, 16 मई 2012

लघुकथा


हवा -हवाएँ/सुधा भार्गव


पति के स्वर्गवास को 15 दिन होते -होते बेटियां ससुराल चली गईं ।रह गई वह और उसका छोटा बेटा -बहू ।

अकेले पन का बोझ उठाये घर के कोने कोने में घूम घूमकर उसकी आँखें किसी को ढूँढ़ रही थीं |
अचानक  पति की  फोटो पर निगाह पड़ी जिसे उसके बच्चों ने न जाने कब- कब में भगवान् के चित्र के पास ही टांग दी थी ।


मन में आये विचार शब्दों में फूट पड़े -
-बेटा  कल से एक माला ज्यादा ले आना ।भगवान् के साथ साथ तुम्हारे पापा की फोटो पर भी माला चढ़ा दिया करूँगी |
सुनते ही बहू बोल पड़ी --

-भगवान् की बात तो समझ में आती है पर पति ---
- ऊंह पति क्या परमेश्वर होता है !

-बहू ,बात है मानने की । तुम्हारे ससुर मेरे मार्ग दर्शक थे फिर उम्र में भी बड़े , इस दृष्टि से वे सम्मान के हकदार तो हैं ही ।

सास चुप हो गई पर दो आँखें अनायास चमक उठीं और दो आँखें---- झुकी -झुकी सी थीं ।
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