वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

लघुकथा


अनुभूति  /सुधा भार्गव






कुछ दिनों से रूमा सोच ही नहीं पाती थी कि क्या पहनूँ क्या नहीं | जब भी अलमारी के सामने खड़ी होती मन के एक कोने से आवाज आती -अब तो तुझे हलके रंग ही पहनने चाहिए वरना दुनिया क्या कहेगी ----! |इसका मतलब मेरी अलमारी में पहनने लायक कपड़े ही नहीं हैं ,रंग -बिरंगे कपड़ों से बेकार अलमारी भरी पड़ी है -सोचकर खट से उसे बंद कर देती |एक अनकहा दर्द बूंद -बूंद करके उसकी आँखों में टपक पड़ता |

कुछ दिन तो सफेद ,हलके आसमानी कपड़े पहनती रही पर बदरंग कपड़ों को पहनकर मुर्दनी छाये चेहरे के साथ -साथ वह स्वयं मुर्दा लगने लगती | मन टुकड़े -टुकड़े हो बिखर जाता |उस समय की अपनी खिंची फोटुओं को देख उसे मितली आने लगी | कई फोटुओं को तो फाड़ भी दिया |

उस दिन रूमा को अपनी सहेली कोयल के जाना था |उसकी बेटी की सगाई थी |साड़ी का चुनाव करते समय लाल -हरी साड़ी से उसके हाथ टकराए जिसे हैदराबाद में पोचम पल्ली गाँव जाकर उसके पति राजा ने बड़े शौक से खरीदी थी |
कहीं भी जाना होता --उसे बस एक ही धुन ---पोचमपल्ली वाली पहनो ना |

हठात हाथ साड़ी को बड़े अपनेपन से सहलाने लगे |सरसराहट सी हुई --पहनो न --पहनो --बड़ी अच्छी लगती हो |
वह अपने को रोक न सकी |साड़ी को पहनकर कोयल के घर की ओर बढ़ गई | रास्ते में कई नजरें घूर रही थीं पर आज उसे उनकी परवाह न थी |

दरवाजा खोलने वाली की आँखें तो फटी की फटी रह गईं -|
--रूमा तू !---य -ह --साड़ी ---इतनी चटक !
-हां कोयल -- पिछले साल पति को खो बैठी जिससे साड़ी के तो क्या-- जीवन के सारे रंग छिटककर मुझसे दूर जा पड़े थे पर मैंने राजा को खोया नहीं है |देख न ---इसे पहनकर मेरे मन की  बगिया उसके प्यार से कैसी महक रही है ।
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