वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

लघुकथा


गुफा / सुधा भार्गव  



विदेशी धरती पर एक खुशनुमा  सुबह !महकती गुलाब की क्यारियों के पास खड़ी  वह   गहरी साँस ले रही थी |चाय की चुस्कियाँ  लेते हुए पीछे से बेटे की आवाज आई --
-माँ ,मैंने चोकलेट और औरेंज टोफियाँ भिजवाई थीं ---मिल गईं |
 -हाँ !
--कल सोयाबीन ,गेहूँ और बार्ली से बनी मिठाई लाया था |
-हाँ --हाँ --वह भी मेरे पास है ।
-उन्हें रखकर भूल मत जाना ,दो दिन में खाकर ख़त्म करना हैं ।चक्की से कह  दिया है आपके मोबाईल से  इंडिया का सिम कार्ड निकालकर यहाँ का डाल दे ताकि फोन करने में कम पैसा लगे ,बस एक छोटा सा हल्का सा छाता और खरीदना है |भरोसा नहीं कब इंद्र देवता मेहरबान हो जायें |अच्छा , धूप का चश्मा और कैमरा तो  इंडिया से   लाई होंगी --कहीं भी जाओ इन सब चीजों को एक बैग में रखकर ले जाना --और हां मेरा परिचय कार्ड भी उसमें डाल लेना |एक साँस  में सब बोल गया ।

वह मुग्ध भाव से सुनतीरही | मेरा इतना ध्यान -------!
बेटा दो कदम गया ही था कि फिर लौटा -जेब से १००पाउंड्स  निकालकर माँ के हाथ में थमाए -ये भी रख लो |
--न -- न मेरे पास हैं |
-ओह ले भी लो माँ काम आएंगे |पुत्र की कमाई पर माँ का भी हक़  है |
पुत्र के अंतिम वाक्य ने उसका मुँह सी दिया |

बेटा  तो जल्दी ही ऑफिस चला गया पर वह  -- 
वह शर्म की अँधेरी गुफा  में धंसती चली गई ।.ख्यालों के बादल एक -दूसरे से टकराने लगे -----------------
उस दिन   थका -मांदा बेटा शाम को  ऑफिस से घर लौटा  था ,| छोटी बेटी जल्दी से आई और  अपने   पापा के  हाथ में कप थमाते बोली --चाय गरम ---गर्मागर्म  चाय | चाय  पीकर उसकी   थकान कपूर की तरह उड़ने लगी |थोड़ी देर में बड़ी बेटी आई --मेरे प्यारे पापू  --जरा आराम से  सोफे पर लेट जाओ  |मैं सिर की चम्पी तेल मालिश कर देती हूँ ,उसके बाद नहाना |

बेटियों की दूध सी स्नेह धारा देख उसके  मुँह से निकल पड़ा ---बेटियाँ कितना ध्यान रखती हैं !बेटे अपनी ही धुन में----वाक्य पूरा करने से पहले ही उसने  अपनी जीभ काट ली पर तीर कमान से निकल चुका था | बेटा मौन था  पर उस चुप्पी में भी हजार प्रश्न  झिलमिला रहे थे ।वह उनमें बिंध  सी गई ।

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गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

लघुकथा











मौलिकता /सुधा भार्गव

-अगले महीने मेरी चार पुस्तकें प्रेस से निकलने वाली हैं I
२६जनवरी को लोकार्पण है आना I
-जरूर आऊँगा
-तुम आजकल क्या कर रहे हो ?
-लिख रहा हूँ I
-फिर छपवाते क्यों नहीं !
-साधन नहीं I
-तो लिखने से क्या फायदा !
-लिखना मेरी मजबूरी हैI
-लाओ ,मैं छपवा दूँ
-इसके बदले मुझे क्या करना होगा ?
-अपनी कुछ अप्रकाशित -मौलिक रचनाएँ मेरे --नाम |

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