वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

दिल्ली न्यूज ट्रैक (www.delhinewstrack.com)
पाक्षिक समाचार पत्रिका  15 दिसंबर,2015(सयुक्तांक-साहित्य विशेषांक  )में मेरी चार लघुकथाएँ प्रकाशित हुई है। उनमें से एक इस ब्लॉग में पोस्ट कर रही हूँ। इसके  संपादक अरविंद गुप्ता हैं और अशोक आन्द्रे जी ने इस अंक के लिए विशेष सहयोग प्रदान किया है। इस अंक के द्वारा साहित्य की विभिन्न विधाओं से संबन्धित रचनाएँ सुधि पाठकों तक पहुंची है जो स्वयं में परिपूर्ण हैं। 

सुहागन/सुधा भार्गव 


वृद्ध पति पत्नी जल्दी ही रात का भोजन कर लेते, अतीत की यादों को ताजी करते हुए टी. वी. देखा करते। एक दिन वृदधा जल्दी सो गई पर आधी रात को हड़बड़ाकर उठ बैठी अरे तुमने मुझे जगाया नहीं !मेरी सीरीयल छूट गई।
-बहुत खास सीरियल थी क्या?
-हाँ ! तुमने भी तो देखी थी सास भी कभी बहू थी। उसमें सास बहू और पोता बहू एक सी साड़ी पहने  हुई थी। आजकल उम्र का तो कोई लिहाज ही नहीं। पर दादी सास लाल पाड़ की साड़ी पहने और कपाल पर सिंदूर की चौड़ी बिंदी लगाए लग बड़ी सुंदर रही थी।
-तुम भी वैसी एक साड़ी खरीद लो।
-सोच तो रही हूँ पर मैं बूढ़ी न ठीक से पहन सकती हूँ न चल सकती हूँ।
-कोई औरत बूढ़ी नहीं होती जब तक उसका पति जिंदा होता है।
झुर्री भरा चेहरा लाजभरी ललाई से ढक गया और प्यार से बतियाती पति का हाथ थामे सो गई।  
सुबह पत्नी को गहरी नींद में डूबा जान पति ने उसे चादर अच्छे से ओढ़ाई और आहिस्ता से कमरे से निकल गया।
सूरज सिर पर चढ़ आया ,बेटे का ऑफिस जाने का समय हो गया। आदत के मुताबिक वह माँ  को प्रणाम करने उसके कमरे में आया माँ माँ मैं ऑफिस जा रहा हूँ । उठो न ,अभी तक सोई हो ।
अपनी बात का कोई असर होते न देख उसने माँ को हिलाया डुलाया। जागती कैसे! वह तो चीर निद्रा में लीन थी।
बेटा दहाड़ मारकर रो पड़ा माँ बिना कुछ  कहे मुझे छोडकर ऐसे क्यों चली गईं।
-सोने दे सोने दे !उसे जो कहना था वह कहकर गई है।वृद्ध पिता थकी आवाज में बोला।
अर्थी सजाई गई। लोगों ने देखा लाल पाड़ की साड़ी मे लिपटी माथे पर सिंदूरी बिंदी जड़ी सुहागन मुस्कुरा रही है। 

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

लघुकथा



नई पौध /सुधा भार्गव 

तैल चित्र 
वह एक ऐसा मदरसा था जिसमें हिन्दू –मुसलमान दोनों के  बच्चे पढ़ने आते थे। एक बार मौलवी साहब उधर से गुजरे। अहाते मेँ बच्चे प्रार्थना कर रहे थे। एक बच्चे को पहचानते हुए उनका तो खून खौल उठा  -अरे सलीम ने अपने बेटे को  मेरे पास भेजने की बजाय इस मदरसे मेँ दुश्मनों के चूजों के साथ पढ़ने भेज दिया। लगता है उसकी मति मारी गई है।

दूसरे दिन पंडित जी अपना जनेऊ संभालते हुए मदरसे के सामने से निकले। टिफिन के समय बच्चे मदरसे के बाहर खेल रहे थे। ।उनकी निगाह अपने यजमान के बेटे पर पड़ गई । उन्हें तो साँप सूंघ गया--- काफिरों के साथ हिन्दू के बेटे! हे भगवान अब तो इसके घर का पानी भी पी लिया तो नरक मेँ भी जगह नहीं मिलेगी। राम –राम –राम कहते आगे बढ़ गए।

दोनों को रात भर नींद नहीं आई । सुबह ही कुछ कर गुजरने की धुन मेँ मदरसे की ओर चल दिए। पंडित सोच रहा था –आज हिन्दू के बच्चे को मदरसे मेँ घुसने ही नहीं दूंगा। उधर मौलवी इस उधेड़बुन मेँ था –किसी भी तरह सलीम के बच्चे का कान खींचते हुए उसके बाप के घर न पहुंचा दिया तो मैं मौलवी नहीं। दोनों एक ही रास्ते पर जा रहे थे,एक ही स्थान पर पहुँचना था पर सांप्रदायिक भावना की मजबूत जकड़ ने उन्हें एक दूसरे से बहुत दूर ला पटका था। भूल से आँखें चार हो जातीं तो घृणा से मुंह फेर लेते।

इनके पहुँचने के समय तक  मदरसा बंद था मगर बहुत से बच्चे उसके बाहर खड़े  खुलने का इंतजार कर रहे थे। उनमें सलीम का बेटा भी था ।
मौलवी जी ने उसे धर दबोचा -–बरखुरदार ,तुम इस मदरसे मेँ पढ़ने क्यों चले आए?हमने तो तुम्हारे वालिद साहब को पढ़ाया है। तुमको भी हमारे पास आना चाहिए।   
-मौलवी साहब मेरे वालिद साहब को रामायण की सीरियल देखना बहुत अच्छा लगता है । वे तो इसे पढ़ना भी चाहते है पर हिन्दी नहीं जानते । मैं यहाँ हिन्दी सीखकर उन्हें रामायण पढ़कर सुनाऊंगा।
मौलवी का मुंह लटक गया।

उधर पंडित ने अपने यजमान के बेटे को जा घेरा- बेटे,मुसलमानों के इस मदरसे मेँ तुम क्या कर रहे हो। तुम्हारे लिए इससे भी अच्छे स्कूल है पढ़ने के लिए।
-पंडित जी,पिताजी गजल शायरी के बहुत शौकीन है, वे खुद मिर्जा गालिब की गजलें पढ़ना चाहते है। मैं उर्दू सीखकर उनको गजलें सुनाऊँगा और सोच रहा हूँ-उन्हें उर्दू भी सिखा दूँ।
धर्मसंकट में पड़े पंडित का हाथ अपने जनेऊ पर जा पड़ा।

मदरसा खुलने पर बच्चे हाथ मेँ हाथ डाले उछलते कूदते अंदर भाग गए और मौलवी व पंडित एक दूसरे को ठगे से देखने लगे। चुप्पी तोड़ते हुए पंडितजी बोले –चलो मौलवी –लौट चलें। एक नई पौध जन्म ले रही है। 

 अंतर्जाल पत्रिका साहित्य शिल्पी में प्रकाशित। उसकी लिंक है-
http://www.sahityashilpi.com/2015/04/nayepaudh-shortstory-sudhabargava.html

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

लघुकथा


मुफ्त की सेवाएँ/सुधा भार्गव 

इस बार मैं लंदन गई तो पड़ोसी विलियम परिवार से अच्छी ख़ासी दोस्ती हो गई। विलियम के जुड़वां बेटे हुए थे। उसकी माँ नवजात शिशुओं की देखभाल में काफी समय बिताती। अपने पोतों के प्रति प्यार व उसकी कर्तव्यभावना को देख मैं हैरान थी क्योंकि अब तक तो मैंने यही सुना व देखा था कि यहाँ माँ –बाप और बच्चे सब अपने में व्यस्त और अलग –थलग रहते हैं।
उस दिन मैं विलियम की माँ से मिलने गई। वे मेरे लिए चाय बनाकर लाईं।
–अरे आपने इतना क्यों कष्ट किया । वैसे ही आपको बच्चों व घर का  बहुत काम है।
-मुझे सारे दिन काम करने की आदत है।आजकल तो बैंक से इन नन्हें –मुन्नों की खातिर दो माह की छुट्टी ले रखी है।
- दो माह की छुट्टी!सरलता से मिल गई?
-हाँ, बस अवैतनिक हैं।
-फिर तो काफी नुकसान हो गया।
-कैसा नुकसान !इन दो माह का वेतन मेरा बेटा देगा क्योंकि मैं उसके लिए काम कर रही हूँ।
-बेटे –पोते तो अपने ही हैं ,अपनों से पैसा क्या लेना।
-ऐसा करने से युवा बच्चे माँ बाप की कदर नहीं जान पाते। मुफ्त की सेवाओं का कोई मूल्य नहीं।
उसकी बातें मुझे ठीक लगीं पर क्या कभी मैं ऐसा कर पाऊँगी? 
दो संस्कृतियों की टकराहट ने मेरा चैन छीन लिया

प्रकाशित -अप्रैल अंक 'देश' के अंतर्गत 
http://laghukatha.com/

शनिवार, 31 जनवरी 2015

लघुकथा

दूध का कर्ज /सुधा भार्गव

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रामकली को पड़ोस में ही कीर्तन में जाना था। देर हो रही थी,इसलिए बच्चों के दूध के गिलास मेज पर रख दिए और बेटी को  खास हिदायत दी –भाई को शीशे के गिलास वाला दूध पिला देना और तुम स्टील के गिलास वाला दूध पी लेना। भाई-बहन खेल में लग गए और फिर जिसके जो हाथ लगा दूध पी गया।


रामकली के आते ही लाड़ला बोला –माँ—माँ आज दूध की मलाई कौन मार गया । न जाने दूध कैसा था?
-मैं तो तेरे लिए शीशे के गिलास में मलाईदार दूध रख गई थी।कौन पी गया..... लगता है यह कमबख्त पी गई ।क्यों री तूने अपना दूध क्यों नहीं पीया?
-माँ,मुझे भी तो मलाई अच्छी लगती है।
-अरी तू मलाई खाकर क्या करेगी!चिकनाई खाकर मोटी और हो जाएगी। मोटी लड़की से कौन शादी करेगा? बेटे का तो  स्वस्थ और  ताकतवर होना जरूरी है, बड़ा होकर परिवार देखेगा अपने माँ-बाप की देखरेख करेगा,क्यों मेरे छ्बीले ! बेटे के सिर पर प्यार से हाथ फिराती है।

कुछ देर पहले ही दोनों बच्चों के पिताजी ऑफिस से लौटे थे । एक पल तो अवाक से पत्नी की बातें सुनते रहे पर ज्यादा देर खामोश न रह सके-
-क्यों बेटी को कोस रही हो!जरूरी नहीं कि बेटा दूध का कर्ज चुका ही दे।   हमारे साले साहब को ही देख लो! बूढ़े माँ-बाप को वृद्धाश्रम भेजकर ही दम लिया । अगर बेटे माँ-बाप का सहारा बनते तो ये वृद्धाश्रम न बनते।