वेदना-संवेदना के बीहड़ जंगलों को पार करती हुई बड़ी खामोशी से तूलिका सृजन पथ पर अग्रसर हो अपनी छाप छोड़ती चली जाती है जो मूक होते हुए भी बहुत कुछ कहती है । उसकी यह झंकार कभी शब्दों में ढलती है तो कभी लघुकथा का रूप लेती है । लघुकथा पलभर को ऐसा झकझोर कर रख देती है कि शुरू हो जाता है मानस मंथन।

रविवार, 25 दिसंबर 2016

लघुकथा -मजबूत कंधे


साहित्य अमृत लघुकथा विशेषांक  जनवरी 2017 में 
प्रकाशित मेरी  एक लघुकथा 





मजबूत कंधे 

ससुर के परलोक सिधारने के बाद कमली की सास उसके ही पास आकर रहने लगी थी। पति की कमाई ज्यादा तो न थी मगर कमली के सुघढ़ गृहिणी होने के कारण गृहस्थी की गाड़ी ठीक से चल रही थी। सास के आने से खर्चा बढ़ गया। इसकी भरपाई करने के लिए उसने चौका –बर्तन करने वाली को हटा दिया और यह काम सास के जिम्मे  कर दिया। सास इस कार्यभार से खुश ही हुई –चलो मेरा मन भी लगा रहेगा और दो पैसे की बचत भी हो जाएगी।
धीरे –धीरे खाना बनाने का भार भी सास के कंधों पर डाल दिया। घर में कैद रहने वाली कमली के अब पर निकल आए। वह घड़ी घड़ी चंचल चिड़िया की तरह एक घर से दूसरे घर मेलमिलाप करने निकल जाती।
सास को आँखों से कम ही दिखाई देता था इसलिए खाना बनाते समय वह हड़बड़ा जाती। कभी नमक ज्यादा पड़ जाता तो कभी सब्जी जल जाती।बेटा तो चुप रहता पर कमली मीन मेख निकालने में कोई कसर न छोडती।  
इस किरकिरी से तंग आकर सास दुखी हो उठी और एक सुबह उदासी में डूबी  वह बेटे-बहू  के पास आन बैठी । बेटा उस समय अखबार पर नजर गड़ाए चाय की चुसकियाँ ले रहा था।
माँ का उतरा चेहरा देख इतना तो वह समझ गया कि माँ कुछ कहना चाहती है पर क्या कहना चाहती है न समझ पाया। प्रश्न भरी निगाहों से उसने उसकी ओर ताका।
-बेटा, अब बूढ़ी हड्डियों में इतनी ताकत नहीं कि हर काम को ठीक से सम्हाल सकूं।
-मेरी हड्डियों में भी इतनी ताकत नहीं कि पूरा घर सँभाल सकूँ। मेरी जान को तो हजार काम हैं। कमली चाय पीते पीते उबल पड़ी।
-बहू,तेरी हड्डियों में ताकत नहीं –मेरी हड्डियों में ताकत नहीं--- पर मेरे बेटे के कंधे तो मजबूत हैं।
-इन्हें इतना समय कहाँ कि बाहर भी काम करें और घर में भी।
-मैं कई दिनों से देख रही हूँ अखबार पढ़ने और चाय की चुसकियाँ लेने में तुम लोगों को आधा घंटा तो लग ही जाता है। यह सब जल्दी निबटाकर थोड़ा समय तो घर के काम के लिए  निकाला ही जा सकता है। क्यों बेटा –कुछ गलत कह रही हूँ?
बेटे का मन अखबार से उचाट हो गया। उसने उचककर रसोई में झाँका। कंपकँपाती ठंड में नल के नीचे झूठे बर्तनों का पहाड़ उसकी माँ का इंतजार कर रहा था।
उसने माँ पर भरपूर निगाह डालते हुए गहरी सांस ली और रसोई की तरफ बढ़ गया।

 सुधा भार्गव 

शनिवार, 12 मार्च 2016

लघुकथा अनवरत (फेसबुक मित्रों की लघुकथाएँ )में प्रकाशित


कमाऊ पूत/ सुधा भार्गव 

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गर्मी के दिन थे! बाँके को सब्जियाँ बेचने शहर की मंडी जाना था। ताप से बचने के लिए उसने सवेरे ही चल देना ठीक समझा। माँ चार रोटियों  के साथ -साथ  5-6 पानी की बोतलें भी झोले में डालने लगी-
—अरे –रे यह क्या कर रही है ?आज क्या पानी ही पानी पीऊँगा।
बेटा,घड़ी-घड़ी तो गला तर करना पड़े है। जरूरत पड़ने पर कुएं का ठंडा पानी दूसरे को भी पिला दीजो। प्यासे को पानी पिलाने से पुण्य ही मिलेगा। 
बाँके को माँ की बात जांच गई और बिना चूँ चपड़ किए सब्जी की टोकरियों के साथ बैलगाड़ी में सारी बोतलें रख लीं। मंडी पहुँचते -पहुँचते सूर्य देवता तमतमाए हुए पूरे ज़ोर से निकल आए।वह  पसीने से तर और गला सूखा –सूखा। पानी पीकर चैन की सांस ली  बोला –आह ,कितना मीठा पानी! अपनी तो सारी थकान मिट गई।
पास खड़े ग्राहक ने उसकी बात सुन ली।  बोला -भइए,मुझे भी तो पिला जरा पानी। गर्मी ने कहर ढा रखा है। तेरे पास तो बहुत बोतलें है। एक मुझे भी दे दे। कितने दाम की है।
एक मिनट बाँके सोच में पड़ गया—पानी का भी दाम!न कभी देखा न सुना।फिर भी मुफ्ती में क्यों दूँ ?
कुशल विक्रेता की तरह बोला—बाबू, ईमान का पानी है,एकदम ताजी,शुद्ध और मीठा। एक बोतल का दाम दस रुपए।
ईमान के पानी की बात दूसरे ग्राहकों के कान में भी पड़ गई और सब्जी से पहले पानी की बोतलें बिक गईं।

ईमान का पानी बाँके के लिए कमाऊ पूत था और इसके सामने वह पाप –पुण्य की बात भूल गया।